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छत्तीसगढ़ के नवोदित कहानीकारों में डॉ. दिनेश श्रीवास एक जाना-पहचाना नाम है। इनकी कहानियां मानवीय संवेदना और मानवीय मूल्यों की खोज करतीं कहानियां हैं। समीक्षकों को इनकी कहानियां सरल किंतु गंभीर प्रभाव उत्पन्न करने वाली लगती हैं। हिन्दी के जानकार एवं भूतपूर्व प्राध्यापक डॉ.एस. एल. गोयल(म.प्र.) की इन कहानियों के बारे में राय –

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नोशन प्रेस से प्रकाशित कहानियों और कविताओं के संग्रह ‘ संवेदना ‘ में डॉ दिनेश श्रीवास की आठ कहानियां संग्रहित है। इन कहानियों को पढ़ते हुए कथ्य गत ताजगी, बनावट और बुनावट दोनों दृष्टि से आकर्षण और सहज संप्रेषणीयता का तत्व स्वत: उभर आता है।

ये कहानियां इस बात की भी द्योतक हैं कि कहानीकार दैनिक जीवन का सशक्त निरीक्षणकर्ता है , इसके भाषिक मुहावरे की भी अच्छी पकड़ है,सामान्य जनजीवन के अनुभव और अनुभूतियों को कथ्य के रूप में ग्रहण कर, प्रभावशाली कथा रचने में भी वे सिद्धहस्त हैं। इस दृष्टि से संकलन का नाम’ संवेदना ‘भी अत्यंत सार्थक प्रतीत होता है।

डॉ श्रीवास की कहानियां कथ्य एवं भाषिक संरचना दोनों ही दृष्टि से सादगी के आकर्षण से युक्त एवम प्रायः इकहरी है। एक प्रकार से ये कहानियां हिंदी के महान कथाकार प्रेमचंद-सुदर्शन स्कूल का स्मरण कराती है।

इन कहानियों में व्यंग्य -विनोद (सेंस आफ ह्यूमर )का अच्छा पुट है, चटपटापन है, भाषा सहज मुहावरेदार है – खाक छानना ,उल्लू का पट्ठा, घोड़े बेचकर सोना ,आमदनी अठन्नी, खर्चा रुपया ,आदि के प्रयोग भाषा को दमदार बनाते हैं ।

कहानियों में प्रयुक्त शब्दों के लिंग प्रयोग पर छत्तीसगढ़ का क्षेत्रीय प्रभाव झलकता है ,जैसे जो शब्द हिंदी क्षेत्रों में स्त्रीलिंग हैं वे पुल्लिंग रूप में और अनेक जगह इसके विपरीत प्रयोग दृष्टिगत होते हैं। उदाहरण के लिए कुछ वाक्य देखे जा सकते हैं –
पढ़ाई ही तेरा सहारा बनेगा,,,,
अपने छोटे से दुकान में ,,,,,,
ऑटो कुछ दूर जाकर खड़ी हो गई,,,,,,
कमर दर्द करता है ,,,,,
सब आपकी मार्गदर्शन है ,,,,,

इसी के साथ ही साथ ‘अयाचित’ सरीखे अल्प प्रयुक्त, ‘बहोरिक ‘जैसे नाम , सांप पकड़ने वाले के बजाय

स्नेक कैचर जैसे शब्द प्रयोग ध्यान आकर्षित करते हैं। इस दृष्टि से हिंदी के मुख्य प्रवाह के अनुरूप लिंग वाचक प्रयोग अनुरूप सावधानी अपेक्षित लगती है।कुल मिलाकर लेखक को बोलचाल के मुहावरे की सहज पकड़ है ।

कहीं-कहीं कथा सूत्रों के उचित निर्वाह में स्खलन दिखाई देता है। विशेष तौर पर जैसे ‘ उल्टा आदमी’ कहानी देखी जा सकती है।

आधुनिक कथा कौशल की वे कहानियां जो हिंदी के परंपरागत पाठक को पल्ले नहीं पड़ती रही, पाठक वर्ग इस लोकप्रिय विधा कहानी तक से छिटक कर दूर होता गया है ,ये कहानियां वैसी नहीं है। ये कहानियां तो पाठक को पढ़ने का न्योता देने वाली ,संवेदना और भाषिक संरचना सभी दृष्टियों से सहज संप्रेषणीय कहानियां है। जिनके आधार पर कहानीकार डॉ दिनेश श्रीवास को संभावनाओं के कथाकार भी कहा जा सकता है।

आलोच्य संकलन की प्रथम तीन कहानियां आकार में छोटी लगभग तीन पृष्ठों की ,शिल्प एवं कथानक दोनों दृष्टि से इकहरी, सरल एवं सादगी वाली कहानियां है। इनमें से प्रथम ‘ टीनू की मां’ ,उन्नीस वर्षीय स्कूल छोड़ चुके विकलांग टीनू और छोटी सी किराने की दुकान चलाकर गुजर बसर करने वाली उसके मां के दर्द की दास्तान और संघर्ष की कहानी है। ,,,,,, पढ़ाई ही तेरा सहारा बनेगा ,,,,,,,,,मां के बार-बार कहने के बावजूद वह पढ़ न सका। पड़ोसी की भतीजी से विवाह उपरांत,,,,,,,, तुम खुद दूसरे पर बोझ हो ,,,,,,,कहती हुई उसे छोड़ कर चली गई पत्नी के दर्द से कराहता विकलांग टीनू मां के अनुभव की प्रामाणिकता को महसूस करता है।

‘विकलता’ कहानी बाल मनोविज्ञान की मौलिक कथा कहती है। प्राय प्रत्येक बच्चे में किसी भी कार्य के तुरंत किए जाने के प्रति एक स्वाभाविक तीव्र आग्रह, अधीरता, व्याकुलता या विकलता पाई जाती है। उसी की सार्थक अभिव्यक्ति पापा, उनका बेटा राजेश और आगे चलकर उसका बेटा वीरू इन तीन पात्रों के माध्यम से अच्छी तरह अभिव्यक्त की गई है ,,,,,,,,,अपने जिए हुए अनुभव को सब भूल जाते हैं ‘

इस कहानी को पढ़ते हुए कहीं-कहीं कृत्रिमता का भी आभास होता है,,,,,, जैसे नन्हा राजेश सोच रहा था- पापा को जब भी मन में ,,,,,,,डांट देते हैं ।पता नहीं बाप बेटे के रिश्ते में ऐसा क्या है? क्या कभी बाप बेटा नहीं रहा होगा? उसका मन न ललचाया होगा ?

बात यह है कि क्या नन्हा राजेश यानी एक छोटी उम्र का बालक इतना परिपक्व चिंतन कर सकता है या लेखक ने अपने विचार अनजाने में उस बच्चे पर आरोपित कर दिए? यह संवाद क्या काल्पनिक व अयथार्थ प्रतीत नहीं होता?

‘विषधर के बच्चे’ कहानी के माध्यम से लेखक ने मानवीय संवेदना के अनछुए पहलू का प्रभावी स्पर्श किया है ।एक बड़े व एक छोटे इस तरह कुल दो सांपों के घर में घुस आने, उनको निकालने के लिए इकट्ठा हुए पड़ोसियों के कार्य व्यवहार का अच्छा दृश्य अंकन तो इस कथा में है ही, पर साथ ही साथ बड़े सांप को बाहर भगा देने के बाद छोटे सांप को साथ ले जाने के लिए वह बड़ा सांप लौट कर आता है। साथ में मैं भी यह विशिष्ट मानवीय प्रवृत्ति की झलक आश्चर्यचकित करती है । वहीं बच्चे का यह प्रश्न सांप घरों में क्यों आते हैं?,,,,,,, मनुष्य ने उनके स्वभाविक घरौंदे, जंगल, निर्जन आदि सब बर्बाद कर दिए ,,,,,,,,,।
इसलिए मौलिकता के साथ यह कथा अत्यंत महत्वपूर्ण संवेदना भी रेखांकित करती है ।क्या हम उनके लिए यानी सर्प और उन जैसे अन्य प्राणियों के लिए घर नहीं बना सकते?

मध्य प्रदेश ,राजस्थान ,उत्तर प्रदेश आदि में अप्रयुक्त शब्द जैसे बच्चा कहता है ,,,,अयाचित मेहमान । सांप पकड़ने वाले की बजाए स्नेक कैचर आदि शब्दों के प्रयोग भी विचारणीय हैं ।

‘ ऑटो वाला’ बचपन में गलत सोहबत से पूरे परिवार का जीवन बर्बाद करने वाले पंजू उर्फ ऑटो वाला की कथा है जो पुलिस सेवा के ठाकुर खेमराज का लड़का है। पंजू ने कॉन्वेंट छोड़ा, लड़कियां छेड़ी, पिता का रिवाल्वर चुरा दोस्तों को दे दिया, जिसके कारण मर्डर केस में फंसा और उसके पिता ने ग्लानी वशीभूत आत्महत्या कर ली। किराए का मकान ,बीमार मां ,कुंवारी ,जवान बहन मीनाक्षी ,मनीराम चायवाला आदि के माध्यम से निम्न मध्य वर्ग के जीवन को, उनके संघर्ष को उभारा गया है। लगभग तीन पृष्ठ लंबे ऑटो वाले और पुलिस के बीच के संवाद , पुलिसिया कार्यशैली, मानसिकता का यथार्थवादी चित्र भी इस कहानी की विशेषता है।

,’इंस्पेक्टरनी’ स्त्री-पुरुष संबंधों की, वर्तमान व पूर्व दीप्तिशिल्प के घटना विन्यास में रची ,कौतूहल तत्व को आत्मसात की हुई ,मध्यम आकार की आकर्षक कहानी है।
स्वास्थ्य विभाग में क्लर्की कर रहा अविवाहित महेश अपने कॉलेज में हीरो था । शोभना पीछे की बेंच पर बैठने वाली चुपचुप रहने वाली लड़की थी जो अब पुलिस इंस्पेक्टर बन चुकी है ।वास्तव में चयन तो इस पद पर महेश का हुआ था। पर शोभना के परिवार की अत्यंत जरूरतमंद स्थिति को देखते हुए महेश जानबूझकर ट्रेनिंग में नहीं गया ताकि प्रतीक्षा सूची की शोभना इंस्पेक्टर पद को पा सके और वही हुआ। प्रेम के खातिर ,बिना कुछ कहे सुने ,महेश का कैरियर का इतना बड़ा त्याग, हंसती खिलखिलाती उन्मुक्त व्यवहार वाली,कृतज्ञ शोभना का महेश से विवाह की इच्छा रखना ,महेश के बेरुखी व्यवहार से आहत अन्यत्र ट्रांसफर हो गई शोभना और महेश की अधूरी प्रेम कहानी पाठक के मन में कई प्रश्न जगाने और एक टीस पैदा करने में सक्षम रचना है।

‘ उल्टा आदमी ‘ एक लोक प्रचलित अनुभव / विश्वास को अपने ढंग से कथा में प्रयुक्त करती मौलिक कथ्य वाली ,ग्यारह पृष्ठों की कहानी है। स्कूल में पढ़ने वाले सोहन के पिताजी जय राम अनेक दिनों से कमर दर्द से परेशान है। कई बैगाओं से झाड़-फूंक करवाने पर भी उन्हें आराम ना मिला। वे इस लोक अनुभव से परिचित हैं कि कितना भी कमर दर्द हो ,उल्टा पैदा हुआ आदमी लात मार दे तो ठीक हो जाता है ।मध्य प्रदेश राजस्थान आदि में इन्हें पग पायला कहते हैं अर्थात पैदा होते समय पहिले सिर बाहर ना आकर पांव बाहर आते हैं।
उल्टे आदमी की खोज कर रहे सोहन के पूछने पर शिक्षक ने कहा जो मनुष्य उल्टा सोचता है ,उल्टा काम करता है ,समाज से अलग काम करता है ,मेरे विचार से वही उल्टा आदमी है ।
इस कहानी की कमजोरी है व्यक्त तथ्यों/ कथा सूत्रों के सम्यक निर्वाह में विसंगतियां ।झाड़-फूंक वाले के लिए बैगाओं शब्द का प्रयोग, व्यक्ति के नाम के रूप में बहोरिक शब्द का प्रयोगआदि आंचलिक शब्द प्रयोग भाषा में ताजगी महसूस कराते हैं ।

‘ बारात’ एक मनोवैज्ञानिक तथ्य को रेखांकित करने वाली, मध्यम आकार की कहानी है जो व्यंग – विनोद के पुट से जीवंत है । बारहवीं में पढ़ने वाली पूजा ने सतीश से एक प्रकार से भागकर लव मैरिज की है और अब परिवार वालों ने भी उन्हें स्वीकार कर लिया है ।फिर भी पूजा के अव चेतन मन में में यह टीस लगातार बनी रहती है कि काश !उसका भी घोड़े पर सवार दूल्हा बारात लेकर आता तो क्या ही अच्छा होता ! इसलिए जब भी सड़क पर कोई बारात निकलती है ,अनजाने ही वह उसे देखने दौड़ पड़ती है।

पूजा का बच्चा उससे होमवर्क करवाने से इसलिए इंकार करता है कि उसके टीचर कहते हैं कि,,,, किस उल्लू के पट्ठे ने होमवर्क कराया है ,,,,,,,,,,,
अपने बाप से होमवर्क करा लेना,,,,, मैं तो मूर्ख हूं। तुम्हारा बाप स्कूल का टॉपर है।,,,,,
मेरे बिना घोड़े वाले, चलो खाना खाए जीवन के एक दृश्य को काटकर कहानी के रूप में संजोने वाली, परंपरागत अंत से रहित इस कहानी का कथ्य भी ताजगी भरा है।

आधुनिक समय में विज्ञान ने चाहे जितनी उन्नति कर ली हो अनेक ग्रामीण आंचलिक क्षेत्रों में नाना प्रकार के अंधविश्वास अब भी लोगों में भरे पड़े हैं ।
किसी स्त्री को डायन मान लेने के अंधविश्वास को स्वर देती और उसका परिष्कार करती उचित रूप में एक समाधान सुझाती’ डायन मां ‘ कहानी है जिसमें पति व इलाज के अभाव में बेटी चंदा को खो चुकी, सीधी सादी, ममता भरी फूलमती को लोग डायन कहने लगते हैं ।नए गुरूजी से प्रचलित अंधविश्वास पर सार्थक प्रहार इस कहानी के संदेश में निहित है ।
साथ ही शुरुआत में
वह पता नहीं किस बात पर झगड़ रहे थे, इस वाक्य में बहुवचन ‘वे’ की बजाए एकवचन ‘वह ‘का प्रयोग प्रश्न पैदा करता है । कहानी के प्रारंभ में
चिड़ियों की चहचहाहट के साथ दो महिलाओं के झगड़ने की आवाज का विरोधाभासी बिंब सौंदर्य पाठक पर अच्छा प्रभाव छोड़ता है।
कुल मिलाकर डॉ श्रीवास की कहानियां अच्छी लगती हैं और भविष्य के प्रति आश्वस्त भी करती है।

Jitendra Dadsena

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